आसियान देशों मे बढ़ रही भारत की धमक
-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आसियान सम्मेलन के लिए इंडोनेशिया रवाना
-एक समय भारत का धुर विरोधी था इंडोनेशिया
-वामपंथी विचारधारा से बचने के लिए बना था आसियान
-मेंबर ना होने पर भी आसियान में भारत की दिलचस्पी
-आसियान देश भारत से खरीदना चाहते हैं हथियार
दिल्ली। इस साल भारत जी-20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी कर रहा है। पूरा देश इसके लिए उत्सुक है। 09 सितंबर से नई दिल्ली में शिखर सम्मेलन का भव्य आयोजन होने वाला है। वहीं इससे पहले अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आसियान-भारत और पूर्वी एशिया देशों के शिखर सम्मेलन में शामिल होने के लिए इंडोनेशिया जाने वाले हैं।
पीएम मोदी आज शाम दिल्ली से निकल कर 07 तारीख को इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता पहुचेंगे। पीएम मोदी की इंडोनेशिया यात्रा को भारतीय विदेश मंत्रालय ने महत्वपूर्ण बताया है। विदेश मंत्रालय ने अपना बयान जारी करते हुए कहा कि- ‘इस यात्रा से वैश्विक पटल पर संदेश जाएगा कि भारत अपने क्षेत्र और आसियन केंद्रीयता को कितना महत्व देता है।’
वामपंथी विचारधारा से बचने के लिए बना था आसियान
1939-1945 तक पूरी दुनिया दुसरे विश्व युद्ध की चपेट में घिरी थी। वहीं 1945 में दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद साउथ ईस्ट एशिया के देशों को जापान और पश्चिमी देशों के कब्जे से भी आजादी मिली। जापान से जंग खत्म होने के बावजूद भी वामपंथी विचारधारा और सीमा विवाद को लेकर यह देश आपस में लड़ रहे थे। इसी दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच भी शीत युद्ध चल रहा था।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1965 में इंडोनेशिया में तख्तापलट हुआ और चीन के समर्थन वाली सुकर्णो सरकार गिर गई। जिसके बाद 1966 में मलेशिया और इंडोनेशिया के बीच चल रहा युद्ध को भी विराम मिला। हालांकि वियतनाम में कम्युनिस्टों के खिलाफ अमेरिका जंग लड़ ही रहा था। साउथ ईस्ट एशियाई देश इस उथल पुथल से बाहर आना चाहते थे।
इसी के चलते साल 1967 में साउथ ईस्ट एशिया के 5 देश आपसी दुश्मनी को भूलकर बैंकॉक में एक बैठक की। उस वक्त इनमें मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर और थाईलैंड शामिल थे। इस बैठक में इन देशों ने तय किया कि यह सरे देश साथ में आकार वामपंथ विचारधारा को बढ़ने से रोकेंगे और अपने देशों में शांति और समृद्धि के लिए काम करेंगे।
यहां से आसियान यानी एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेशंस की नींव पड़ी। 1990 के दशक में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चल रहे शीत युद्ध की समाप्ति के साथ, इस संगठन में 5 नए देश कंबोडिया, वियतनाम, ब्रुनेई, लाओस और म्यांमार भी शामिल हो गए। इन देशों ने एक-दूसरे से आर्थिक साझेदारी बढ़ाने का फैसला किया, ताकि किसी भी तरह का विवाद होने के बावजूद उनमें जंग न हो।
मेंबर ना होने पर भी आसियान में इतनी दिलचस्पी क्यों दिखा रखा है भारत
2010 में भारत ने आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट साइन किया था। 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की लुक ईस्ट पॉलिसी को अपग्रेड कर इसे एक्ट ईस्ट पॉलिसी में बदल दिया। वहीं मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज के मुताबिक भारत का 55ः ट्रेड साउथ चाइना सी के रास्ते से होकर गुजरता है। ऐसे में इन देशों से अच्छे संबंध बनाकर रखना भारत के लिए महत्वपूर्ण है।
इसके अलावा समुद्री सुरक्षा के चलते भारत के लिए आसियान देशों की अहमियत और बढ़ जाती है। दरअसल 1988 में एशिया में आई आर्थिक तंगी ने आसियान देशों की चीन पर निर्भरता को बढ़ा दिया था। जिसका फायदा चीन ने उठाकर साउथ चाइना सी में अपना दबदबा कायम करना शुरू कर दिया। इससे आसियान देशों के पास अमेरिका से रिश्ते मजबूत करने का विकल्प बचा था।
वहीं अब भारत इस कड़ी में आसियान देशों के सामने तीसरे विकल्प के तौर पर उभरा है। भारत के बढ़ते वैश्विक स्तर के कारण आसियान देश भी भारत की अहमियत को समझ चुकें हैं। चीन को काउंटर करने के इरादे से इस इलाके में भारत की भूमिका को अमेरिका ने भी माना है। जहां पहले इस इलाके को एशिया-पैसिफिक कहकर बुलाया जाता था। वहीं अब इसे इंडो-पैसिफिक यानी हिंद-प्रशांत महासागर कहा जाता है।
आसियान देश भारत से खरीदना चाहते हैं हथियार
आसियान देशों के बीच तेजी से हथियारों की मांग बढ़ रही है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की 2023 की रिपोर्ट के मुताबिक साउथ ईस्ट एशियाई देशों में भारतीय हथियारों की मांग तेजी से बड रही है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया की साउथ ईस्ट एशियाई देशों में मिलिट्री खर्च 2 दशकों में दोगुना हो गया है।
गौरतलब है कि साल 2000 में यह देश अपनी सुरक्षा पर 1.67 हजार करोड़ रुपए खर्च कर रहे थे। जो 2021 में बढ़कर 3.57 हजार करोड़ रुपए हो चुका है। आपको बता दें कि मिलिट्री पर किए गए खर्च में सबसे ज्यादा उछाल 2013 से देखने को मिला। यह वही समय था जब चीन ने साउथ चाइना सी के इलाके में घुसपैठ कर अपना दबदबा कायम करना तेज कर दिया था।
दरअसल चीन की दुसरे देशों की सीमाओं में घुसपैठ की हरकतों से आसियान संगठन के 10 में से 5 देशों ने आपत्ति जाहिर की है। इन देशों में मलेशिया, वियतनाम, ब्रुनेई, फिलीपींस और इंडोनेशिया शामिल हैं। वहीं इन देशों में हथियारों का प्रोडक्शन काफी कम है। ऐसे में यह देश भारतीय हथियारों के तरफ अपनी दिलचस्पी दिखा रहे हैं। जहां अब भारत भी इस मार्केट में अपनी एंट्री के लिए तेजी से काम कर रहा है।
क्या फायदा मिलेगा भारत को
भारत को आसियान में रुची लेने के पीछे चीन का ध्यान हिंद महासागर से भटकाना है। आपको बता दें कि सिंगापुर नेशनल यूनिवर्सिटी के रिसर्चर योगेश जोशी के मुताबिक चीन सुपरपावर बनने के लिए विस्तारवाद का तरिका अपना रहा है। वो उन देशों को घेरने की कोशिश कर रहा है जिनसे उसे चुनौती मिलती है। इनमें भारत भी शामिल है। श्रीलंका को कर्ज के जाल में फंसाकर चीन ने हिंद महासागर में एंट्री ली है। वहीं चीन ने म्यांमार और मालदीव में इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलप किया है। इस पर भारत ने लगातार आपत्ति जाहिर की है।
ऐसे में आसियान देशों को हथियार देकर भारत चीन का ध्यान हिंद महासागर से हटाकर साउथ चाइना सी की तरफ ले जाना चाहता है। इसी कड़ी में भारत की ब्रह्मोस एयरोस्पेस कंपनी ने बताया था कि वो इंडोनेशिया को सुपरसोनिक मिसाइल देने के लिए पूरी तरह तैयार है। यह डील 16 हजार करोड़ रुपए की होगी और शुरुआती दौर की बातचीत भी की जा चुकी है। वहीं, भारत ने फिलीपींस के साथ भी 31 हजार करोड़ रुपए की डील की है। जिसके तहत भारत इस साल के अंत तक फिलीपींस को ब्रह्मोस मिसाइलस का एक बेडा डिलिवर करेगा।
गौरतलब है कि आसियान देशों को हथियार देकर भारत न सिर्फ चीन को हिंद महासागर से खदेड़ने की कोशिश कर रहा है, बल्कि इसके जरिए चीन को उसी के पड़ोसी देशों की मदद से घेरने की कौशिश भी कर रहा है।दरअसल, भारत से जो मिसाइलें और हथियार आसियान देशों को देने वाला है, वो साउथ चाइना सी के पास तैनात किए जाएंगे। भारत सिर्फ ब्रह्मोस ही नहीं बल्कि लड़ाकू एयरक्राफ्ट तेजस को भी बेचने की कोशिश कर रहा है, जिससे साउथ चाइना सी में चीन के जहाजों पर नजर रखी जा सके।
एक समय भारत का धुर विरोधी था इंडोनेशिया
दरअसल 11 सितंबर 1965 को इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में भारत के दूतावास पर हमला किया गया था। भारतीय दूतावास के बाहर ‘क्रश इंडिया’ के नारे तक लगाए गए थे। इस हमले के पीछे इंडोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति सुकर्णो का हाथ बताया जाता है। गौरतलब है कि पंडित नेहरू ने 1950 में भारत की पहली गणतंत्र दिवस परेड में सुकर्णो को बतौर चीफ गेस्ट दिल्ली बुलाया था। बता दें कि इस हमले की वजह 1963 से 1966 तक इंडोनेशिया और मलेशिया के बीच सीमा विवाद को लेकर छिड़ी जंग थी।
इस जंग में भारत ने मलेशिया का पक्ष लिया था और इससे नाराज हुए इंडोनेशिया के राष्ट्रपति ने भारतीय दूतावास पर हमला करवाया था। वहीं जंग में इंडोनेशिया को चीन का समर्थन मिला हुआ था। 1965 में हुई इस घटना को 58 साल बीत चुके हैं और आज दोनों देशों के रिश्तों में फाफी सुधार आया है। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंडोनेशिया में हो रही आसियान देशों की समिट में हिस्सा लेने के लिए जा रहे हैं। सूत्रों की माने तो भारत की उपस्तिथि इंडोनेशिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि चीन के जाल में फंसता इंडोनेशिया भारत की मदद चाहता है।
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